'भ्रष्टाचार'
आजकल हिंदुस्तान में एक शब्द अत्यंत लोकप्रिय हो चला है, महानतम् नेता-अभिनेता से भी कहीं अधिक। चर्चित भी इतना अधिक है कि गली-गली, गांव-गांव, क्या बच्चा, क्या बूढ़ा, क्या जवान, क्या औरत, क्या आदमी, गरीब-अमीर सब इसी की बातें करते देखे-सुने जा सकते हैं। सास-बहू के सीरियल और सनसनी पर अपनी टीआरपी बढ़ाने वाला टेलीविजन भी आजकल इस पर कुछ अधिक ही मेहरबान है। तथाकथित बुद्धिजीवियों के तो हाथ मानों लाटरी लग गई हो। जिसे देखो इस शब्द पर अपना ज्ञान उड़ेलने के लिए तैयार बैठा है। मीडिया की चर्चा में भाग लेने के लिए आने वाले चापलूस स्वयंभू विशेषज्ञों के लिए मानों ओवरटाइम का वक्त शुरू हो गया। यहां पक्ष-विपक्ष की तरफदारी के लिए मशक्कत करने की भी जरूरत नहीं, बस इस शब्द पर अंटशंट बात करते रहो। इस शब्द पर तो लेखकों ने हर समाचारपत्र-पत्रिका के कागज भर मारे। इतनी खोज-खबर और शोधपूर्ण विश्लेषण शायद किसी विषय का भी नहीं हुआ होगा, जितना इस अकेले शब्द का हुआ है। हिंदी ही नहीं अंग्रेजी भाषा के भी दूसरे शब्द इसकी इतनी अधिक लोकप्रियता को देखकर जलते-भुनते होंगे। ठीक उसी तरह जिस तरह से एक रूपवान महिला न जाने क्यूं अमूमन हर दूसरी सुंदरी से ईर्ष्या करती है।
मगर यहां मजेदारी इस बात की है कि इस शब्द की सामाजिक स्वीकृति फिल्मी नायिका जैसी नहीं है, जिसके चरित्र के साथ उसकी खूबसूरती की चर्चा दर्शक खुलेआम करता है। यह तो उस आइटम-गर्ल की तरह बदनाम है जिसके साथ हर दूसरा व्यक्ति समय तो गुजारना चाहता है, देख-देखकर मजा भी लेता है, मौका मिले तो वो सब कुछ कर सकता है जिसकी कल्पना की जा सकती है, मगर दिन-दहाड़े उजाले में रिश्ते स्वीकार करने से इंकार करता है। सिनेमाघर के अंदर अंधेरे में उसकी मनमोहक अदाओं को पसंद करते हुए खूब सीटियां बजाता है मगर बाहर आकर उससे पल्ला झाड़ लेता है। क्या किसी एक शब्द में इतने अधिक गुण-अवगुण एकसाथ संभव हैं? यकीन नहीं होता। लेकिन यह सच है। और वो शब्द है 'भ्रष्टाचार'।
उपरोक्त शब्द की कहानी यहीं समाप्त नहीं हो जाती। इसके साथ एक और गजब का विरोधाभास है। जो देखो वो भ्रष्टावार के विरोध में बात तो करता है मगर दूसरी तरफ हर दूसरा आदमी भ्रष्ट है। स्थिति इतनी विकराल ही नहीं, विकृत और बदतर है कि कुछ न कहना ही बेहतर होगा। यह हमारी सभ्यता में कहां से कब-कैसे शुरू हुई, इसका सिरा पकड़ना अब असंभव है। समाज में चारों दिशाओं में इस कदर दूर-दूर तक फैल चुकी है कि कोई अंत नहीं दिखाई देता। स्थिति इतनी भयावह है कि भ्रष्टाचारियों को चिन्हित करने का काम शुरू हो जाने पर शायद ही कोई बचे। मगर मजेदार बात यह है कि जो पकड़ा गया वही चोर है, के चलन के कारण हर एक व्यक्ति/संस्थाएं दूसरे पर उंगली उठाकर स्वयं को पाक-साफ घोषित करने में जरा भी हिचक महसूस नहीं करती। यूं तो भ्रष्टाचार आमतौर पर आर्थिक संदर्भ में ही उपयोग किया जाता है मगर हमारे यहां तो इसके इतने रूप-रंग और चेहरे दिखाई देते हैं कि देख-सुनकर दिमाग खराब हो जाता है। धार्मिक, सामाजिक, वैचारिक ही नहीं हम भावनात्मक रूप से भी इतने भ्रष्ट हो चुके हैं कि सोच-सोचकर सिर चकरा जाता है।
इसने हमारे व्यवहार, विश्वास, जीवनशैली व संस्कृति को ही प्रभावित नहीं किया बल्कि अब भ्रष्टाचार हमारा स्वभाव बन चुका है। यह हमारे खून में शामिल है। यह दीगर बात है कि इसका उपयोग हम हर वक्त नहीं करते। या यूं कहें कि हर समय मौका नहीं मिलता। और जिसे मौका नहीं मिलता अमूमन वही स्वयं को भ्रष्टाचार से मुक्त प्रमाणित करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। मगर समय आने पर इसका उपयोग करने से आमतौर पर कोई भी नहीं चूकता। हो सकता है चुपचाप धीरे से ही सही, लेकिन कई बार तो मौका मिलते ही हम सारी सीमायें तोड़ देते हैं। ऐसा नहीं कि यह बीमारी हमारी आज की है। शताब्दियों तक गुलाम रहने के पीछे इस शब्द के चलन का बहुत बड़ा योगदान रहा है। मगर इस युग में खुले बाजार की पूंजीवादी नीति ने हमारी चाहतों व महत्वाकांक्षाओं को हवा क्या दी, यह अपनी नयी ऊंचाइयों को छू रहा है।
राष्ट्र व समाज से लेकर व्यक्तिगत जीवन का शायद ही कोई हिस्सा बचा हो जो भ्रष्टाचार से अछूता हो। मरणासन्न रोगी के लिए भी अस्पताल का भ्रष्टाचार कम नहीं हो पाता। तमाम व्यवस्था को बनाये रखने व चलाने वाली संस्थाओं व प्रशासन पर कोई टिप्पणी करना व्यर्थ समय गंवाना है। मगर दुर्भाग्यवश राजनीतिज्ञ ही इसके कारण सबसे अधिक बदनाम हुए हैं। राजनेताओं को इस क्षेत्र के शिखर पर बैठाकर आज हर दूसरा आदमी अपनी कमीज सफेद घोषित कर देना चाहता है। लेकिन इन सबके कपड़ों के दाग भी उजाले में उभरकर सरेआम मुंह चिढ़ाते हैं। यह दीगर बात है कि आईने में हमें कभी कुछ गलत दिखाई नहीं पड़ता। और हम अपना चेहरा देख-देखकर स्वयं ही इतराते रहते हैं। विभिन्न राजकीय संस्थाएं ही क्यूं, हमारी सामाजिक संस्थाएं भी कितनी भ्रष्ट हो चुकी हैं, देखकर हैरानी होती है। ज्ञान के मंदिर से लेकर अध्यात्म का मंदिर, प्रेम का मंदिर सब भ्रष्टाचार में डूब चुके हैं। यह अलग बात है कि हमारी ऐसी स्थिति के लिए कुछ हमारी आदतें जिम्मेदार हैं तो कुछ हालात ने हमें ऐसा बना दिया।
ट्रेन में एक ही सीट खाली है और दस व्यक्ति प्रतीक्षा-सूची में हैं, और सभी को यात्रा करना जरूरी हो तो आदमी भ्रष्ट तरीका अपनाने के लिए मजबूर हो जाता है। फिर इतनी सहनशीलता, शालीनता और मानवीयता कहां बची कि सही रास्ता ढूंढ़ा जाये। उलटे जब एक साधन-संपन्न व्यक्ति, आसानी से सुविधा प्राप्त करने के लिए लेनदेन का रेट बढ़ा देता है तो भ्रष्टाचार प्रतिस्पर्धा करने लगता है। तभी तो चपरासी से लेकर वरिष्ठतम् नौकरशाह तक, एक राशनकार्ड बनाने से लेकर एक कारखाने की स्थापना तक में भ्रष्टाचार अपने-अपने ढंग से जुटा हुआ है। यहां किसको दोष दिया जाये? सवाल पूछा जा सकता है कि संस्थाएं कार्पोरेट को भ्रष्टाचार के लिए मजबूर करती हैं या पूंजीपति अपने हित-साधन के लिए भ्रष्ट करता है? यह मुर्गी-अंडे की कहानी के समान है। पहले दुनिया में कौन आया था? इस पर बहस करना व्यर्थ है। हकीकत तो यही है कि हर एक इस खेल में शामिल है और अपने-अपने ढंग व सहूलियत से खेल रहा है।
इतना सब होने के बावजूद इस शब्द को सामाजिक स्वीकृति नहीं। यही कारण है जो इसका नाम साथ जुड़ने मात्र से लोग डरने लगते हैं। इस शब्द की एक विशेषता और है, यह मजा तो देती है मगर साथ में तंग भी बहुत करती है। इस बुरी आदत, जो कि लत बन चुकी है, को छोड़ पाना आसान नहीं। बहरहाल, भ्रष्टाचार-मुक्त समाज देखने-बनाने के लिए सब आतुर नजर आते हैं। यही कारण है जो भ्रष्टाचार शब्द की महान कथा यहीं खत्म नहीं हो जाती। अब तो इसके नाम पर आंदोलन खड़े कर दिये गये। अनजान चेहरे रातोंरात सितारा बन गये। इस मुद्दे पर जनसमर्थन मिलना स्वाभाविक था, मिला भी। फलस्वरूप आंदोलनकारियों में जोश इतना आ गया कि क्रांति की बात की जाने लगी। उपरोक्त संदर्भ में चर्चा करने पर एक दोस्त ने बड़ा अच्छा किस्सा सुनाया था। उसके क्षेत्र में भी एक व्यक्ति ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन छेड़ रखा था।
बैंड-बाजे के साथ बाजार में घूमता और जब देखो तब किसी के भी विरुद्ध धरने पर बैठ जाता। कुछ को भावनात्मक रूप से तो कुछ को ले-देकर, इस तरह से दो-चार-पांच-दस लोगों को इकट्ठा करके जिंदाबाद-मुर्दाबाद के नारे लगाता। इस शब्द की माया ही थी कि उसकी नेतागिरी चल पड़ी। स्थानीय मीडिया में वो आने लगा। मेरे द्वारा यह पूछने पर कि इसमें आपत्ति क्या है? दोस्त ने यह कहकर जोर से ठहाका लगाया था कि वो हमारे क्षेत्र का सबसे शातिर और भ्रष्टतम् आदमी है। अब दुकानों से, स्थानीय कार्यालयों से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से उसकी अच्छी आमदनी होने लगी है। सुनकर मेरा दिमाग चकराया था। और विभिन्न राष्ट्रीय आंदोलनों के खिलाफ उठ रही शंकाओं को इस उदाहरण से बल मिलते ही मेरे होश उड़ने लगे थे।
भ्रष्टाचार शब्द की महिमा यहीं समाप्त नहीं हो जाती। उसको मिटाने वाले शब्द का निर्माण किया गया तो वो भी रातोंरात हर एक की जुबान पर पहुंच गया। लोकपाल। मगर मन में संशय तो प्रारंभ से ही था कि क्या एक लोकपाल से सबकुछ ठीक हो जायेगा? क्या यह संभव है? उपरोक्त विस्तृत वर्णन देखकर लगता तो नहीं? फिर हमारा भ्रष्टाचार इतना कमजोर भी नहीं जो किसी एक ब्रह्मास्त्र से खत्म हो जाये। उलटा वो इतना चतुर-चालाक है कि इस लोकपाल को ही अपने कब्जे में ले सकता है। और फिर जिस समाज में इस शब्द का इतना अधिक मायावी प्रभाव हो उससे पूरी तरह बचा हुआ कोई साफ-सुथरा व्यक्ति-समूह का मिल पाना, हास्यास्पद-सा लगता है! मगर फिर भी इस विषय पर गहराई से बात करने को कोई तैयार नहीं। और जो इसका विश्लेषण करे उसे भ्रष्टाचारी घोषित कर दिया जाता है।
अब क्या किया जाये भ्रष्टाचार शब्द के मायाजाल के साथ-साथ इसके विरुद्ध आक्रोश भी उतना ही है। खैर, धन्य हो उन महान भ्रष्टाचारियों का जिन्होंने इस संपूर्ण घटनाक्रम को भ्रष्ट किया और उन्हें पकड़ने वाले को पैदा होने से पूर्व ही भ्रष्ट करने का एक सफल सुनियोजित प्रयास किया। यहां तक भी सब ठीक था। इस शब्द पर राजनीति तो पहले भी होती थी मगर अबकी बार इसकी सवारी कर लोकप्रियता की ऊंचाई हासिल करने वाले कुछ एक उत्साही महत्वाकांक्षी युवक राजनीतिज्ञ बनने के सपने देखने लगे हैं। वे इस शब्द को हराने के लिए युद्ध लड़ने का नारा दे रहे हैं। भ्रष्टाचार के डरावने सपनों से निकालने के वायदे किये जा रहे हैं। चुनावी हथकंडों से खेला जाने लगा है। राजनीतिज्ञों द्वारा भ्रष्टाचार के मुद्दे को शस्त्र बनाकर एक-दूसरे के विरुद्ध उपयोग तो होता आया है मगर इसकी सवारी कर राजनीति करने का यह अद्भुत नजारा है। यह जानते हुए भी कि राजनीति के घोड़े से सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक क्षेत्र के भ्रष्ट शेरों को हराना नामुमकिन है फिर भी कुछ एक अंधभक्त समर्थक इनके साथ लड़ने को आतुर नजर आते है। यह देखकर हैरानी होती है।
यह भ्रष्टाचार शब्द की ही अनंतलीला है कि इसने स्वयं को एक खेल में परिवर्तित कर दिया। यहां हरेक खिलाड़ी के अपने-अपने नियम हैं। छोटे और बड़े भ्रष्टाचारी के बीच जंग तो बेमानी होगी मगर भ्रष्टाचारी अम्पायर के तर्क और भ्रष्ट दर्शकों की ताली देखकर किसी की भी बुद्धि भ्रष्ट हो सकती है।
मनोज सिंह
चंडीगढ़
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