Friday, 21 September 2012

SPEECH OF MANMOHAN SINGH ON LOKPAL


 Man Took Off Shirt To Protest Against Manmohan Singh
                                 


लोकसभा में लोकपाल विधेयक पर बहस के दौरान प्रधानमंत्री का वक्तव्य




एक राष्ट्र के जीवन में कुछ क्षण बहुत ही विशेष होते हैं। यह ऐसा ही विशेष अवसर है। राष्ट्र बड़ी बेताबी से प्रतीक्षा कर रहा है कि लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक 2011 पर बहस के अंत में मतदान द्वारा इस सदन का सामूहिक विवेक प्रतिबिम्‍बित होगा।
इस विधेयक के मुख्य प्रावधानों पर जनता में और राजनीतिक दलों द्वारा काफी बहस हुई है। मेरा यह सच्चा विश्वास है कि यह विधेयक जो इस समय सदन के सामने हैं, उस वचन पर खरा उतरता है जो इस सदन के सदस्यों ने इस देश के लोगों को 27 अगस्त 2011 को सदन की भावना के रूप में बहस के अंत में सामूहिक रूप से पेश किया था। कानून बनाने का कार्य बड़ा गंभीर मामला है और यह अंततः हम सब के द्वारा किया जाना चाहिए, जिन्हें यह संवैधानिक रूप से सौंपा गया है। अन्य लोग भी बहस कर सकते हैं और उनकी आवाज सुनी जाएगी, लेकिन, निर्णय हमें ही करना है। इसके साथ-साथ हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि भ्रष्टाचार और उसके परिणामों ने राजनीति को खराब किया है। हमने देखा है कि पिछले एक वर्ष में जनता का क्रोध किस प्रकार बढ़ा है। इसलिए आइए हम इस विधेयक का इसके प्रस्तावित रूप में समर्थन करें। इस विधेयक का प्रारूप तैयार करने में हमने बड़े पैमाने पर सलाह मशविरा किया है। राजनीतिक दलों के विचारों से हमारा ज्ञान वर्धन हुआ है और सभी प्रकार के सुझावों को ध्यान में रखा गया है।
मैं यह कहना चाहता हूं कि जब मेरी सरकार चुनी गयी थी, हम अपनी नीतियां जनता की भलाई के अनुरूप बनाना चाहते थे। हम पारदर्शी और खुले प्रशासन में विश्वास करते हैं और आम प्रशासन के प्रति हमारी सैद्धांतिक वचनबद्धता के कारण ही हम सन् 2005 में सूचना का अधिकार अधिनियम लाया। जनोन्मुखी नीतियों को और बढ़ावा देने के लिए हमने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, 2005 पारित किया। बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा अधिकार अधिनियम, 2009 वंचित और हाशिए पर खडे लोगों को सशक्त बनाने की हमारी इच्छा का सबूत है। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबों की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के निदान के लिए है। हमने जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरणीय मिशन (जेएनएनयूआरएम) के जरिये अपने शहरों को नया रूप देने का प्रयास किया है। राजीव आवास योजना का उद्देश्य शहरों में गरीब और बेघर लोगों को आवास प्रदान करना है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक 2011 का प्रस्तुत किया जाना गरीब और कुपोषित लोगों को भुखमरी और प्रवंचना के परिणामों से सुरक्षित करने की दिशा में एक अन्य उपाय है। भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास विधेयक 2011 किसानों और रोजगार से वंचित लोगों के बीच समानता लाने के उद्देश्य से लाया गया है। हमने अधिक समतावादी और समावेशी भारत का निर्माण करने का प्रयास किया है जिसमें कम सुविधा प्राप्त लोगों तक विकास के लाभ पहुंचाना है। यह मेरी सरकार का मिशन है और यह आगे भी जारी रहेगा।
भ्रष्‍टाचार पर हमारी सरकार ने निर्णायक कदम उठाए हैं। पिछले एक साल में हम कई ऐतिहासिक कानूनों पर कार्य कर रहे हैं। नागरिकों को सामान एवं सेवाओं की समयबद्ध उपलब्धता का अधिकार तथा उनकी शिकायत निवारण से संबंधित विधेयक, 2011 सदन के समक्ष है। जनहित में प्रकटीकरण और प्रकटीकरण करने वाले व्यक्तियों को संरक्षण देने संबंधी विधेयक, 2010 और लोकपाल और लोकायुक्‍त विधेयक, 2011 को अभी आपकी मंज़ूरी मिलनी बाकी है। न्‍यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक, 2010 को स्‍थायी समिति द्वारा मंजूरी मिल चुकी है और इस पर सरकार द्वारा विचार किया जाना बाकी है। सेवाओं की इलेक्‍ट्रॉनिक रूप से उपलब्धता संबंधी विधेयक, 2011 को पेश किया जा रहा है जो यह सुनिश्चित करेगा कि जन सेवाएं इलेक्‍ट्रॉनिक तरीकों से लोगों तक पहुँचे। यह ऐतिहासिक और अभूतपूर्व विधेयक हैं। प्रशासनिक क्षेत्र में हमारी सरकार पारदर्शिता और जवाबदेही के सिद्धांतों के साथ निर्णय प्रक्रिया को सरल बनाना चाहती है। हम खरीद के विषय में सार्वजनिक नीति उपाय बना रहे हैं। मंत्रियों के समूह ने जहां तक मुमकिन हो प्रशासनिक विषयों में अधिकार को खत्‍म करने की सिफारिश की है। यह कार्य प्रगति पर है। हमने सूचना का अधिकारी कानून के साथ शुरूआत की थी । हम लोकपाल और लोकायुक्‍त विधेयक के साथ ही भ्रष्‍टाचार के खिलाफ लड़ाई समाप्‍त नहीं होने देंगे।
हमें भ्रष्‍टाचार के खिलाफ संपूर्ण रूप से लड़ाई करनी चाहिए। यदि हम अपने प्रयास में वास्‍तव में ईमानदार हैं तो हमारे क़ानूनों का असर सर्वव्‍यापी होना चाहिए। राज्‍य विधानसभाओं को प्रस्‍तावित मॉडल कानून अपनाने और इसे लागू करने में देरी करने संबंधी दलीलों को स्‍वीकार नहीं किया जा सकता। भ्रष्‍टाचार, भ्रष्‍टाचार है चाहे वह केंद्र में हो या राज्‍यों में। इसका कोई वैधानिक रंग नहीं है। मैं सभी पार्टियों के नेताओं से आह्वान करता हूं कि वह राजनीतिक पक्षपात से ऊपर उठें और लोगों को बताएं कि यह सदन भ्रष्‍टाचार के प्रयासों के विरूद्ध संघर्ष करने के प्रति वचनबद्ध है। हम सभी इस प्रस्‍ताव के समर्थन में है जिसमें सदन की भावना भी झलकती है कि हम लोकपाल के साथ राज्‍यों में लोकायुक्‍त बनाने के प्रति वचनबद्ध हैं। यदि हम संविधान के अनुच्‍छेदों का हवाला देकर लोकायुक्‍त की व्‍यवस्‍था प्रदान नहीं करते तो यह सदन के द्वारा राष्‍ट्र को दिए गए वादे को तोड़ना होगा। ऐसी क्रिया विधि से संसद की भावना का ठेस नहीं पहुंचनी चाहिए। मैं संसद में अपने सहयोगियों से आह्वान करता हूं कि वह इस विधेयक को पास करने के लिए दलगत राजनीति से ऊपर उठें।
केंद्र सरकार नागरिकों को सीधे तौर पर सीमित सार्वजनिक सेवाएं मुहैया कराने के लिए जिम्‍मेदार है। मुख्‍य समस्‍या राज्‍य सरकारों के क्षेत्रों में है जहां आम आदमी हर रोज़ किसी न किसी तरीके से भ्रष्‍टाचार का सामना करता है। इसी वजह से ग्रुप सी और ग्रप डी के कर्मचारियों को राज्‍यों में लोकायुक्‍त के दायरे में लाया गया है। स्‍थानीय के साथ-साथ राज्‍य प्राधिकरण आम आदमी को अनिवार्य सेवाएं प्रदान करने के लिए अधिकृत है। यहां पर भ्रष्‍टाचार के शाप से निपटने की ज़रूरत है। पानी, बिजली, नगरपालिका सेवाएं, परिवहन, राशन की दुकानें ऐसे कुछ उदाहरण हैं जहां राज्‍य और स्‍थानीय प्राधिकरणों द्वारा ज़रूरी सेवाएं प्रदान की जाती हैं और जिससे आम आदमी की जिंदगी प्रभावित होती है। राज्‍यों में लोकायुक्‍त की स्‍थापना से इससे होने वाली निराशा को कम किया जा सकेगा।
केन्द्र सरकार की प्रमुख फ्लैगशिप योजनाओं का कार्यान्वयन राज्य सरकार के अधीन कार्यरत कार्यकारी अधिकारियों द्वारा ही किया जाता है। लोकसभा तथा अन्य सदन में सदस्य प्रतिदिन हमारी केन्द्रीय योजनाओं को राज्यों द्वारा लागू किए जाने पर मोह भंग जाहिर करते हैं। हमें इसका उपचार करना होगा। जब तक लोकायुक्तों को स्थापित नहीं किया जाता तब तक भ्रष्टाचार का कैंसर फैलता रहेगा। हमें इस मुद्दे को अब और अधिक लंबित नहीं करना चाहिए। भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई में संघवाद बाधा नहीं बन सकता।
हम मानते हैं कि सीबीआई को सरकारी निर्देशों के बगैर बिना किसी व्यवधान के कार्य करना चाहिए। लेकिन कोई भी संस्थान और कोई भी व्यक्ति चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, उसे जवाबदेही से मुक्त नहीं होना चाहिए। सभी सांस्थानिक संरचनाओं को हमारे संविधान के साथ सुसंगत होना चाहिए। आज हमें यह मानने को कहा जा रहा है कि जिस सरकार का जनता के द्वारा प्रत्यक्ष रुप से चुनाव किया गया है और जो उसके प्रति जवाबदेह है उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता किंतु एक संस्था जिसे जनता से प्रत्यक्ष तौर पर औचित्य प्राप्त नहीं हुआ है अथवा उसके प्रति जवाबदेह नहीं है उस पर सम्मान और विश्वास के साथ उसकी अपरिमित शक्ति पर भरोसा किया जा सकता है। हमारे संवैधानिक संरचना के साथ किसी अन्य भिन्न संस्था का निर्माण नहीं किया जाना चाहिए और बिना किसी जवाबदेही के मुश्किल कार्यकारी उत्तरदायित्व का प्रभार नहीं दिया जाना चाहिए। मूलभूत विश्लेषण में, संवैधानिक संरचना के अंतर्गत सभी संस्थान संसद और केवल संसद के प्रति जवाबदेह है। इस कानून को लागू करने में हमारी उत्सुकता में हमें लड़खड़ाना नहीं चाहिए। मेरा यह मानना है कि सीबीआई को लोकपाल से स्वतंत्र होकर कार्य करना चाहिए। मेरा यह भी मानना है कि सीबीआई को सरकार से भी स्वतंत्र होकर कार्य करना चाहिए। लेकिन स्वतंत्रता से अभिप्राय जवाबदेही की अनुपस्थिति का नहीं है। इसलिए हमने सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति के लिए ऐसी प्रक्रिया का प्रस्ताव रखा है जिसमें प्रधानमंत्री, भारत के मुख्य न्यायाधीश अथवा उनके द्वारा मनोनीत व्यक्ति और लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता शामिल हो। किसी को भी इस प्रक्रिया की ईमानदारी के प्रति संदेह नहीं होना चाहिए। जहां तक लोकपाल के तहत सीबीआई के कार्यशील होने का मुद्दा है, हमारी सरकार मानती है कि इससे संसद के बाहर एक ऐसी कार्यकारी संरचना का निर्माण होगा जो किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है। यह संवैधानिक सिद्धांतों के लिए अभिशाप है। मेरा मानना है कि जो विधेयक अभी सदन के सम्मुख है उसमें कार्यात्मक स्वायत्तता और सीबीआई की जवाबदेही का न्यायसंगत मिश्रण है। मुझे विश्वास है कि इस सदन का विवेक विधेयक में प्रतिबिंबित हमारी सरकार के प्रस्ताव का समर्थन देने के लिए आगे आएगा।
इस चर्चा के दौरान नौकरशाही पर काफी आरोप लगे। हालांकि मैं इससे सहमत हूं कि सार्वजनिक अधिकारियों को निष्कपट होना चाहिए और अपराधियों के साथ शीघ्रता और निर्णयात्मक रुप से निपटा जाना चाहिए, मुझे उन बहुत से जन सेवकों के प्रति गहरी सराहना प्रकट करनी होगी जो अविश्वास के माहौल में अपने कर्तव्यों का निर्वहन पूरी निष्ठा के साथ करते हैं। मुझे नहीं लगता कि सभी जन प्रतिनिधियों को एक ही नज़रिए से देखा जाना चाहिए जैसे कि हर राजनेता को हम भ्रष्ट नहीं मान सकते। बगैर एक कार्यशील, प्रभावी प्रशासन प्रणाली, कोई भी सरकार अपनी जनता के लिए कार्य नहीं कर सकती। हमें एक ऐसी प्रणाली को स्थान नहीं देना चाहिए जिसमें जन सेवक हिचकिचाहट के कारण डर कर उस बात को दर्ज न करा सके जिसे वह सोचते हैं और इस प्रक्रिया में कुशल प्रशासन की आत्मा को खतरा उत्पन्न होगा। जन सेवकों के आचरण की परख करते हुए हमें स्पष्ट गैर-कानूनी आचरणों तथा अनजाने में और गलती से हुई भूलों में अंतर करने की ज़रुरत को नजर अंदाज नहीं करना चाहिए। कई बार हमारे जनसेवकों को अनिश्चय की स्थितियों में निर्णय लेना पड़ता है। एक सहज अनिश्चयात्मक भविष्य में यह संभव है कि कोई प्रक्रिया जो शुरु में प्रत्याशित रुप से न्यायसंगत लगे वही बाद में ठीक न लगे। पुरस्कारों और दंड की हमारी प्रणाली में हमें इस तथ्य को नजर अंदाज नहीं करना चाहिए।
शासन की सभी प्रणालियां विश्वास पर आधारित होनी चाहिए। यह लोगों का भरोसा है जिसे सरकार में हम प्रतिबिंबित और संरक्षित करते हैं। सभी प्राधिकारियों पर अविश्वास लोकतंत्र की नींव को खतरे में डालती है। विशाल आकार और विविधता के हमारे राज-शासन को एक साथ तभी बनाए रखा जा सकता है जब हम उन संस्थानों में अपना भरोसा और विश्वास बनाए रखेंगे जिन्हें हमने वर्षों में बेहद सावधानी के साथ निर्मित किया है। मतदाताओं की शक्ति वह मूलभूत अधिकार है जो हमारे लोकतांत्रिक संस्थानों में जवाबदेही लाती है। लोकतंत्र को खतरे में डालकर हम केवल अव्यवस्था की उन ताकतों के लिए राह प्रशस्त करेंगे जहां भावनाओं को दलीलों के स्थान पर जगह मिलेगी।
महोदया
हम वर्तमान की कमियों की प्रतिक्रियास्वरुप भविष्य के लिए कुछ निर्मित कर रहे हैं। जब हम भविष्य की ओर देखते हैं तो हमें इसमें छिपी हुई दिक्कतों पर भी ध्यान देना चाहिए। भ्रष्टाचार को समाप्त करने के नाम पर हमें ऐसा कुछ भी निर्मित नहीं करना चाहिए जिससे उसका नाश हो जाए जिसे हमने संजोया है।
जनता के प्रतिनिधि होने के नाते हमें उस विश्वास को पुनः निर्मित करने की एक अन्य यात्रा की शुरुआत करने के लिए अभी तत्पर होना होगा, जो एक मजबूत और गुंजायमान भारत के लिए आवश्यक है।

SPEECH OF MANMOHAN SINGH IN HINDI


         
                     
No government likes to impose burdens on the common man. Our government has been voted to office twice to protect the interests of the aam admi: PM




             

राष्ट्र के नाम प्रधान मंत्रीजी  का संदेश


भाइयो और बहनो,
आज शाम मैं आपको यह बताना चाहता हूं कि सरकार ने किन वजहों से हाल ही में आर्थिक नीतियों से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण फैसले लिए हैं। कुछ राजनीतिक दलों ने इन फैसलों का विरोध किया है। आपको यह सच्चाई जानने का हक है कि हमने ये निर्णय क्यों लिए हैं।
कोई भी सरकार आम आदमी पर बोझ नहीं डालना चाहती। हमारी सरकार को दो बार आम आदमी की ज़रूरतों का ख्याल रखने के लिए ही चुना गया है।
सरकार की यह जिम्मेदारी है कि वह राष्ट्रहित में काम करे और जनता के भविष्य को सुरक्षित रखे। इसके लिए हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हमारी अर्थव्यवस्था का तेजी से विकास हो जिससे देश के नौजवानों के लिए पर्याप्त संख्या में अच्छे रोज़गार के नए मौके पैदा हों। तेज आर्थिक विकास इसलिए भी जरूरी है कि हम शिक्षा, स्वास्थ्य, आवासीय सुविधाओं और ग्रामीण इलाकों में रोज़गार उपलब्ध कराने के लिए ज़रूरी रकम जुटा सकें।
आज चुनौती यह है कि हमें यह काम ऐसे समय पर करना है जब विश्व अर्थव्यवस्था बड़ी मुश्किलों के दौर से गुजर रही है। अमरीका और यूरोप आर्थिक मंदी और वित्तीय कठिनाइयों से निपटने की कोशिश कर रहे हैं। यहां तक कि चीन को भी आर्थिक मंदी का एहसास हो रहा है।
इस सबका असर हम पर भी हुआ है, हालांकि मेरा यह मानना है कि हम दुनिया भर में छाई आर्थिक मंदी के असर को काबू में रखने में काफी हद तक कामयाब हुए हैं।
आज हम ऐसे मुकाम पर हैं, जहां पर हम अपने विकास में आई मंदी को खत्म कर सकते हैं। हमें देश के अंदर और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निवेशकों के विश्वास को फिर से कायम करना होगा। जो फैसले हमने हाल ही में लिए हैं, वे इस मकसद को हासिल करने के लिए ज़रूरी थे।
मैं सबसे पहले डीजल के दामों में बढ़ोत्तरी और एलपीजी सिलिंडरों पर लगाई गई सीमा के बारे में बात करना चाहूंगा।
हम अपनी ज़रूरत के तेल का करीब 80 प्रतिशत आयात करते हैं और पिछले चार सालों के दौरान विश्व बाजार में तेल की कीमतों में तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई है। हमने इन बढ़ी हुई कीमतों का सारा बोझ आप पर नहीं पड़ने दिया। हमारी कोशिश यह रही है कि जहां तक हो सके आपको इस परेशानी से बचाए रखें।
इसके नतीजे में पेट्रोलियम पदार्थेां पर दी जाने वाली सब्सिडी में बड़े पैमाने पर इज़ाफा हुआ है। पिछले साल यह सब्सिडी 1 लाख चालीस हजार करोड़ रुपए थी। अगर हमने कोई कार्रवाई न की होती तो इस साल यह सब्सिडी बढ़कर 2 लाख करोड़ रुपए से भी ज़्यादा हो जाती।
इसके लिए पैसा कहां से आता? पैसा पेड़ों पर तो लगता नहीं है। अगर हमने कोई कार्रवाई नहीं की होती तो वित्तीय घाटा कहीं ज्यादा बढ़ जाता। यानि कि सरकारी आमदनी के मुकाबले खर्च बर्दाश्त की हद से ज़्यादा बढ़ जाता। अगर इसको रोका नहीं जाता तो रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीजों की कीमतें और तेजी से बढ़ने लगतीं। निवेशकों का विश्वास भारत में कम हो जाता। निवेशक, चाहे वह घरेलू हों या विदेशी, हमारी अर्थव्यवस्था में पूंजी लगाने से कतराने लगते। ब्याज की दरें बढ़ जातीं और हमारी कंपनियां देश के बाहर कर्ज नहीं ले पातीं। बेरोज़गारी भी बढ़ जाती।
पिछली मर्तबा 1991 में हमने ऐसी मुश्किल का सामना किया था। उस समय कोई भी हमें छोटे से छोटा कर्ज देने के लिए तैयार नहीं था। उस संकट का हम कड़े कदम उठाकर ही सामना कर पाए थे। उन कदमों के अच्छे नतीजे आज हम देख रहे हैं। आज हम उस स्थिति में तो नहीं हैं लेकिन इससे पहले कि लोगों का भरोसा हमारी अर्थव्यवस्था में खत्म हो जाए, हमें ज़रूरी कदम उठाने होंगे।
मुझे यह अच्छी तरह मालूम है कि 1991 में क्या हुआ था। प्रधान मंत्री होने के नाते मेरा यह फर्ज है कि मैं हालात पर काबू पाने के लिए कड़े कदम उठाऊं। 
दुनिया उन पर रहम नहीं करती जो अपनी मुश्किलों को खुद नहीं हल करते हैं। आज बहुत से यूरोपीय देश ऐसी स्थिति का सामना कर रहे हैं। वे अपनी ज़िम्मेदारियों का खर्च नहीं उठा पा रहे हैं और दूसरों से मदद की उम्मीद कर रहे हैं। वे अपने कर्मचारियों के वेतन या पेंशन में कटौती करने पर मजबूर हैं ताकि कर्ज देने वालों का भरोसा हासिल कर सकें।
मेरा पक्का इरादा है कि मैं भारत को इस स्थिति में नहीं पहुंचने दूंगा। लेकिन मैं अपनी कोशिश में तभी कामयाब हो सकूंगा जब आपको ये समझा सकूं कि हमने हाल के कदम क्यों उठाए हैं।
डीजल पर होने वाले घाटे को पूरी तरह खत्म करने के लिए डीजल का मूल्य 17 रुपए प्रति लीटर बढ़ाने की ज़रूरत थी। लेकिन हमने सिर्फ 5 रुपए प्रति लीटर मूल्य वृद्धि की है। डीजल की अधिकतर खपत खुशहाल तबकों, कारोबार और कारखानों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली बड़ी कारों और SUV के लिए होती है। इन सबको सब्सिडी देने के लिए क्या सरकार को बड़े वित्तीय घाटों को बर्दाश्त करना चाहिए?
पेट्रोल के दामों को न बढ़ने देने के लिए हमने पेट्रोल पर टैक्स 5 रुपए प्रति लीटर कम किया है। यह हमने इसलिए किया कि स्कूटरों और मोटरसाइकिलों पर चलने वाले मध्य वर्ग के करोड़ों लोगों पर बोझ और न बढ़े।
जहां तक एलपीजी की बात है, हमने एक साल में रियायती दरों पर 6 सिलिंडरों की सीमा तय की है। हमारी आबादी के करीब आधे लोग, जिन्हें सहायता की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है, साल भर में 6 या उससे कम सिलिंडर ही इस्तेमाल करते हैं। हमने इस बात को सुनिश्चित किया है कि उनकी ज़रूरतें पूरी होती रहें। बाकी लोगों को भी रियायती दरों पर 6 सिलिंडर मिलेंगे। पर इससे अधिक सिलिंडरों के लिए उन्हें ज़्यादा कीमत देनी होगी।
हमने मिट्टी के तेल की कीमतों को नहीं बढ़ने दिया है क्योंकि इसका इस्तेमाल गरीब लोग करते हैं।
मेरे प्यारे भाइयो और बहनो,
मैं आपको बताना चाहता हूं कि कीमतों में इस वृद्धि के बाद भी भारत में डीजल और एलपीजी के दाम बांगलादेश, नेपाल, श्रीलंका और पाकिस्तान से कम हैं।
फिर भी पेट्रोलियम पदार्थे पर कुल सब्सिडी 160 हजार करोड़ रुपए रहेगी।  स्वास्थ्य और शिक्षा पर हम कुल मिलाकर इससे कम खर्च करते हैं। हम कीमतें और ज्यादा बढ़ाने से रुक गए क्योंकि मुझे उम्मीद है कि तेल के दामों में गिरावट आएगी।
अब मैं खुदरा व्यापार यानि Retail Trade में विदेशी निवेश की अनुमति देने के फैसले का ज़िक्र करना चाहूंगा। कुछ लोगों का मानना है कि इससे छोटे व्यापारियों को नुकसान पहुंचेगा। यह सच नहीं है।
संगठित और आधुनिक खुदरा व्यापार पहले से ही हमारे देश में मौजूद है और बढ़ रहा है। हमारे सभी ख़ास शहरों में बड़े खुदरा व्यापारी मौजूद हैं। हमारी राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में अनेक नए Shopping centres हैं। पर हाल के सालों में यहां छोटी दुकानों की तादाद में भी तीन-गुना बढ़ोत्तरी हुई है।
एक बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था में बड़े एवं छोटे कारोबार, दोनों के बढ़ने के लिए जगह रहती है। यह डर बेबुनियाद है कि छोटे खुदरा कारोबारी मिट जाएंगे।
हमें यह भी याद रखना चाहिए कि संगठित खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश की अनुमति देने से किसानों को लाभ होगा। हमने जो नियम बनाए हैं उनमें यह शर्त है कि जो विदेशी कंपनियां सीधा निवेश करेंगी उन्हें अपने धन का 50 प्रतिशत हिस्सा नए गोदामों, Cold storage और आधुनिक Transport व्यवस्थाओं को बनाने के लिए लगाना होगा। इससे यह फायदा होगा कि हमारे फलों और सब्जियों का 30 प्रतिशत हिस्सा, जो अभी Storage और Transport में कमियों की वजह से खराब हो जाता है, वह उपभोक्ताओं तक पहुंच सकेगा। बरबादी कम होने के साथ-साथ किसानों को मिलने वाले दाम बढ़ेंगे और उपभोक्ताओं को चीजें कम दामों पर मिलेंगी।
संगठित खुदरा व्यापार का विकास होने से अच्छी किस्म के रोज़गार के लाखों नए मौके पैदा होंगे।
हम यह जानते हैं कि कुछ राजनीतिक दल हमारे इस कदम से सहमत नहीं हैं। इसीलिए राज्य सरकारों को यह छूट दी गई है कि वह इस बात का फैसला खुद करें कि उनके राज्य में खुदरा व्यापार के लिए विदेशी निवेश आ सकता है या नहीं। लेकिन किसी भी राज्य को यह हक नहीं है कि वह अन्य राज्यों को अपने किसानों, नौजवानों और उपभोक्ताओं के लिए बेहतर ज़िंदगी ढूंढने से रोके।
1991 में, जब हमने भारत में उत्पादन के क्षेत्र में विदेशी निवेश का रास्ता खोला था, तो बहुत से लोगों को फिक्र हुई थी। आज भारतीय कंपनियां देश और विदेश दोनों में विदेशी कंपनियों से मुकाबला कर रही हैं और अन्य देशों में भी निवेश कर रही हैं। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि विदेशी कंपनियां Information Technology, स्टील एवं ऑटो उद्योग जैसे क्षेत्रों में हमारे नौजवानों के लिए रोज़गार के नए मौके पैदा करा रही हैं। मुझे पूरा यकीन है कि खुदरा कारोबार के क्षेत्र में भी ऐसा ही होगा।
मेरे प्यारे भाइयो और बहनो,
यूपीए सरकार आम आदमी की सरकार है।
पिछले 8 वर्षेां में हमारी अर्थव्यवस्था 8.2 प्रतिशत प्रति वर्ष की रिकार्ड दर से बढ़ी है। हमने यह सुनिश्चित किया है कि गरीबी ज़्यादा तेजी से घटे, कृषि का विकास तेज़ हो और गांवों में भी लोग उपभोग की वस्तुओं को ज़्यादा हासिल कर सकें।  
हमें और ज़्यादा कोशिश करने की ज़रूरत है और हम ऐसा ही करेंगे। आम आदमी को फायदा पहुंचाने के लिए हमें आर्थिक विकास की गति को बढ़ाना है। हमें भारी वित्तीय घाटों से भी बचना होगा ताकि भारत की अर्थव्यवस्था के प्रति विश्वास मज़बूत हो।
मैं आपसे यह वादा करता हूं कि देश को तेज़ और inclusive विकास के रास्ते पर वापस लाने के लिए मैं हर मुमकिन कोशिश करूंगा। परंतु मुझे आपके विश्वास और समर्थन की ज़रूरत है। आप उन लोगों के बहकावे में न आएं जो आपको डराकर और गलत जानकारी देकर गुमराह करना चाहते हैं। 1991 में इन लोगों ने इसी तरह के हथकंडे अपनाए थे। उस वक्त भी वह कामयाब नहीं हुए थे। और इस बार भी वह नाकाम रहेंगे। मुझे भारत की जनता की सूझ-बूझ में पूरा विश्वास है।
हमें राष्ट्र के हितों के लिए बहुत काम करना है और इसमें हम देर नहीं करेंगे। कई मौकों पर हमें आसान रास्तों को छोड़कर मुश्किल राह अपनाने की ज़रूरत होती है। यह एक ऐसा ही मौका है। कड़े कदम उठाने का वक्त आ गया है। इस वक्त मुझे आपके विश्वास, सहयोग और समर्थन की जरूरत है।
इस महान देश का प्रधान मंत्री होने के नाते मैं आप सभी से कहता हूं कि आप मेरे हाथ मज़बूत करें ताकि हम देश को आगे ले जा सकें और अपने और आने वाली पीढ़ियों के लिए खुशहाल भविष्य का निर्माण कर सकें।
जय हिन्द !



Wednesday, 19 September 2012

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       विदेशी खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश का व्यापार 

खेरिज किराना व्यापार में विदेशी निवेश लाने के फैसले पर देश में बवाल बचा है और इस पर बहस हो रही है। एक आम लेखक और नागरिक के रूप में हमें इस फैसले के विरोध या समर्थन करने की शक्ति नहीं रखते हैं क्योंकि इस निर्णय तो शिखर पुरुषों को करना होता है। साथ ही चूंकि प्रचार माध्यमों में चर्चा करने में हम समर्थ नहीं है इसलिये अपने ब्लाग पर इसका आम नागरिकों की दृष्टि से विश्लेषण कर रहे हैं। हमने देखा कि आम जनमानस में इस निर्णय की कोई अधिक प्रतिक्रिया नहीं है। इसका कारण यह है कि आम जनमानस समझ नहीं पा रहा है कि आखिर मामला क्या है?        अगर भारतीय बुद्धिजीवियों की बात की जाये तो उनका अध्ययन भले ही व्यापक होता है जिसके आधार वह तर्क गढ़ लेते हैं पर उनका चिंत्तन अत्यंत सीमित हैं इसलिये अधिक गहन जानकारी उनसे नहीं मिल पाती और उनके तक भी सतही होते हैं। यही अब भी हो रहा है। अगर खेरिज किराने के व्यापार में विदेशी निवेश की बात की जाये तो उस पर बहस अलग होनी चाहिए। अगर मसला संगठित किराना व्यापार ( मॉल या संयुक्त बाज़ार) का है तो वह भी बहस का विषय हो सकता है। जहां तक खेरिज किराना व्यापार में विदेशी निवेश का जो नया फैसला है उसे लेकर अधिक चिंतित होने वाली क्या बात है, यह अभी तक समझ में नहीं आया। दरअसल यह निर्णय हमारी उदारीकरण की उस नीति का इस पर सारे राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक संगठन चल रहे हैं। अगर हम यह मानते हैं कि केवल वाल मार्ट के आने से इस देश के छोटे किराने व्यापारी और किसान तबाह हो जायेंगे तो यह एक भारी भ्रम होगा क्योंकि हम जिन नीतियों पर समाज को चलता देख रहे हैं वह उससे अधिक खतरनाक हैं। यह खतरा लगातार हमारे साथ पहले से ही चल रहा है जिसमें छोटे मध्यम व्यवसाय अपनी महत्ता खोते जा रहे हैं।           हमें याद है कि इससे पहले भी बड़ी कंपनियों के किराना के खेरिज व्यापार में उतरने का विरोध हुआ पर अंततः क्या हुआ? बड़े शहरों में बड़े मॉल खुल गये हैं। हमने अनेक मॉल स्वयं देखे हैं और यकीनन उन्होंने अनेक छोटे व्यवसायियों के ग्राहक-प्रगतिवादियों और जनवादियों के दृष्टि से कहें तो हक- छीने हैं। हम जब छोटे थे तो मेलों में बच्चों को खिलाने के लिये विभिन्न प्रकार के झूले लगते थे। कभी कभार मोहल्ले में भी लोग ले आते थे। आज मॉल में बच्चों के आधुनिक खेल हैं और तय बात है कि उन्होंने कहीं न कहीं गरीब लोगों की रोजी छीनी है। हम यहां यह भी उल्लेख करना चाहेंगे कि तब और बच्चों के रहन सहन और पहनावे में भी अंतर था। हम अगर उन्हीं झूलों के लायक थे पर आज के बच्चे अधिक धन की फसल में पैदा हुए हैं। तब समाज में माता पिता के बच्चों को स्वयं घुमाने फिराने का फैशन आज की तरह नहीं  था। यह काम हम स्वयं ही कर लेते थे। एक तरह से साफ बात कहें तो तब और अब का समाज बदला हुआ है। यह समाज उदारीकरण की वजह से बदला या उसके बदलते हुए रूप के आभास से नीतियां पहले ही बन गयी। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि उदारीकरण में पूंजीपतियों का पेट भरने के लिये समाज का बौद्धिक वर्ग पहले ही लगा हुआ था।                 अब खुदरा किराना व्यापार की बात कर लें। धन्य है वह लोग जो आज भी खुदरा किराना व्यापार कर रहे हैं क्योंकि जिस तरह अब नौकरियों के प्रति समाज का रुझान बढ़ा है उसमें नयी पीढ़ी के बहुत कम लोग इसे करना चाहते हैं।          हम यहां शहरी किराना व्यापार की बात कर रहे हैं क्योंकि मॉल और संयुक्त व्यापार केंद्र शहरों में ही हैं। पहली बात तो यह है कि जो पुराने स्थापित किराने व्यापारी हैं उनकी नयी पीढ़ी यह काम करे तो उस पर हमें कुछ नहीं कहना पर आजकल जिसे देखो वही किराना व्यापार कर रहा है। देखा जाये तो किराना व्यापारी अधिक हैं और ग्राहक कम! हमारे एक मित्र ने आज से पंद्रह साल पहले महंगाई का करण इन खुदरा व्यापारियों की अधिक संख्या को बताया था। उसने कहा था कि यह सारे व्यापारी खाने पीने की चीजें खरीद लेते हैं। फिर वह सड़ जाती हैं तो अनेक दुकानें बंद हो जाती हैं या वह फैंक देते हैं। इनकी वजह से अनेक चीजों की मांग बढ़ी नज़र आती है पर होती नहीं है मगर उनके दाम बढ़ जाते हैं। उसका मानना था कि इस तरह अनेक कंपनियां कमा रही हैं पर छोटे दुकानदार अपनी पूंजी बरबाद कर बंद हो जाते हैं। इसका अन्वेषण हमने नहीं किया पर जब हम अनेक दुकानदारों के यहां वस्तुओं की मात्रा देखते हैं तो यह बात साफ लगता है कि कंपनियों का सामान अधिक होगा ग्राहक कम!          हमारे देश में बेरोजगारी अधिक है। एक समय तो यह कहा जाने लगा था कि कि जो भी अपने घर से रूठता है वही किराने की दुकान खोल लेता है। इधर मॉल खुल गये हैं। ईमानदारी की बात करें तो हमें मॉल से खरीदना अब भी महंगा लगता है। एक बात यह भी मान लीजिये कि मॉल से खरीदने वाले लोगो की संख्या अब भी कम है। हमारे मार्ग में ही एक कंपनी का खेरिज भंडार पड़ता है जहां सब्जियां मिलती हैं पर वहां से कभी खरीदी नहीं क्योंकि ठेले वाले के मुकाबले वहां ताजी और सस्ती सब्जी मिलेगी इसमें संशय होता है। हमारे शहर में कम से कम दो कंपनियों के खेरिज भंडार खुले और बंद भी हो गये यह हमने देखा।          भारतीय अर्थव्यवस्था के अंतद्वंद्वों और उनके संचालन की नीतियों की कमियों पर हम लिखने बैठें तो बहुत सारी सामग्री है पर उसे यहां लिखना प्रासंगिक है। हम इन नीतियों को जब देश के लाभ या हानि से जोड़कर देखते हैं तो लगता है कि यह चर्चा का विषय नहीं है। इस देश में दो देश सामने ही दिख रहे हैं-एक इंडिया दूसरा भारत! कभी कभी तो ऐसा लगता है कि हम एक भारतीय होकर इंडियन मामले में दखल दे रहे हैं। कुछ लोगों को यह मजाक लगे पर वह मॉल और मार्केट में खड़े होकर चिंत्तन करें तो यह बात साफ दिखाई देगी। वॉल मार्ट एक विदेशी कंपनी है उससे क्या डरें, देशी कंपनियों ने भला कौन छोड़ा है? सीधी बात कहें तो नवीन नीति से देश के किसानों या खुदरा व्यापारियों के बर्बाद होने की आशंका अपनी समझ से परे है। हम मान लें कि वह कंपनी लूटने आ रही है तो उसका मुकाबला यहां मौजूद देशी कंपनियों से ही होगा। मॉल के ग्राहक ही वॉल मार्ट में जायेंगे जो कि देशी कंपनियों के लिये चुनौती है। बड़े शहरों का हमें पता नहीं पर छोटे शहरों में हमने देखा है कि कम से पचास ग्राम चाय खरीदने कोई मॉल नहीं जाता। देश में रोज कमाकर खाने वाल गरीब बहुत हैं और उनका सहारा खुदारा व्यापारी हैं। गरीब रहेगा तो खुदरा व्यापारी भी रहेगा। वॉल मार्ट या गरीबी मिटाने नहीं आ रही भले ही ऐसा दावा किया जा रहा है।            अपने पास अधिक लिखने की गुंजायश नहीं है क्योंकि पढ़ने वाले सीमित हैं। इतना जरूर कह सकते हैं कि यह बड़े लोगों का आपसी द्वंद्व है जो अंततः आमजन के हित का नारा लगाते हुए लड़ते हैं। आज के आधुनिक युग में शक्तिशाली प्रचारतंत्र के कारण आमजन भी इतना तो जान गया है कि उसके हित का नारा लगाना इन शक्तिशाली आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक समूहों के शिखर पुरुषों की मजबूरी है। इसलिये उनके आपसी द्वंद्वों को रुचि से देखता है।                                                                                                                                                                                                            

                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                       

SPEECH OF ABHISHEK BACHHAN IN GURU (HINDI)

                                                           GURU
 Khada ho jaoon ya iske liye bhi license chahiye. Aap kehte hai main kanoon ke khilaaf hoon. 40 saal pehle ek aur aadmi tha jo kanoon ke khilaaf tha, aaj hum unko Bapu kehte hai. Unke waqt main gulami kanoon tha, unhone naya kanoon banaya humari azadi ka kanoon. Main bapu nahi hoon main bas apna dhanda karna janta hoon, mehnat janta hoon garibi janta hoon.


Do kameez ek biwi aur ek saale le kar Bombay aaya tha socha tha business karoonga. Yahan pahuncha to dekha ki dhande karne ke saare darwaze band the. Who khulte the to sirf ameeron ke liye. Sarkari darwaze the yeh aap ke banaye hue ya to laat mar kar khulte the ya ji hazoori de ke. Maine dono kiya jahan laat mar sakta tha laat maari, jahan bola salaam do maine bola salaam lo. Aaj mujhe yahan khada kar ke aap log yeh kah rahe ki yeh aadmi itni laat kyon marta hai, sala salam bahut karta hai.
Kis baat se naraz hai aap meri tarakki se ya meri trakki ki tezi se ya isliye sab gaussa hai ki ek mamooli ganwar ki had se aagey chala gaya hoon main
Aapne ilzaam lagaya hai na mujhe par excise, custom, income tax ye tax who tax.jab dhanda maine shuru kiya tha In sab shabdon ka matlab nahi janta tha kai baar gira hoon tab jaa kar seekha hoon. Paise bachane ke liye Payedhooni se 20-20 km chala hoon Kelasilk ka ye bada gadda sar pe dho ke. Paise ki keemat kya hoti hai main janta hoon, agar paisa ban sakta tha to maine banaya hai lekin sirf apne liye nahi apne 30 lakh shareholders ke liye bhi.
Aapke kuch 3 minute baaki hai
Mere ko yeh golf khelna nahi aata, ye ghode ki race bhi nahi khelta hoon lekin apne dhande ka mazboot khiladi hoon main. Polyster banana janta hoon fibre, chemical wo bhi A1 quality ka sabse saste daam main. Yeh hai meri galti is liye maafi mangoon aap se………….Petrol pump attendant tha main dabbe le ke ghoomta hai jaise apna desh haath faila ke ghoomta hai world bank ke aagey paise de do sadak banana hai. Kyon na badle kismet humari humari aur humare desh ki, aap chahte hai main humesha petrol pump attendant rahoon. Humein kyon teesri duniya bulaya jaata hai humein bhi haq hai pehli duniya ban ne ka aur hum ban sakte hai. Hum wahan pahunch sakte hai who upar top tak.
Yahan tak pahunchne ke liye bahut kuch khoya hai maine yeh haath khoye hai maine latka rehta hai sala. Aur jab tak yeh enquiry khatam hogi na jaane kya kya kho doonga main apni awaz, apna dimaag. Lekin ek cheez aap mujhse nahi cheen paoge who hai meri himmat, who nahi khoonga main. Kyone ki meri himaat aam aadmi ki himmat hai, Is desh ki himmat hai. Arey is desh ki tarakki par kaunsi enquiry bithayenge aap aur humein kaun si enquiry rok payegi.
Aap ne mujhe 5 minute diya than a sadhe 4 minute main sab khatam kar diya. 30 second munafa yahi hota hai business aur agar iske liye bhi aap mujhe sazaa sena chahe to de dijiye Gurukant Desai saza se nahi darta.

Tuesday, 18 September 2012

BEST SPEECH OF NARENDRA MODIJI IN HINDI


साबरमती रिवर-फ्रन्ट वॉक-वे एवं वॉटर स्पोर्ट्स का लोकार्पण करते हुए मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी

ज एक ऐसे नए प्रोजेक्ट का हम लोकापर्ण कर रहे हैं जिसके कारण कई सारे डॉक्टरों की दुकानें बंद हो सकती हैं, ऐसा काम हम आज अहमदाबाद को दे रहे हैं। यह रिवरफ्रन्ट शहर की तबीयत के साथ साथ नागरिकों की तबीयत को भी सुधारेगा।मित्रों, ये आज पहला कार्यक्रम है रिवरफ्रन्ट के लोकापर्ण का, ‘वॉक वे’ का लोकापर्ण है। इसका लोकापर्ण हो इससे पहले राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के आधे दर्जन से ज्यादा अवार्ड यह प्रोजेक्ट जीत चुका है। जो लोग गुजरात को बदनाम करते थे, दिन रात बस एक ही काम… आज के कार्यक्रम के बारे में आपने पढ़ा होगा, कैसी गंदगी का उपयोग किया है आपने देखा होगा ….।
भाइयों-बहनों, दो प्रोजेक्टों की मैं बात करना चाहता हूँ, नर्मदा योजना के लिए वर्ल्ड बैंक से हमने पैसे मांगे थे और वर्ल्ड बैंक ने यह कह कर नर्मदा परियोजना के लिए पैसा देने से मना कर दिया था कि यह प्रोजेक्ट ऍन्वाइरमॅन्ट फ्रेन्ड्ली नहीं है और इसके कारण ऍन्वाइरमॅन्ट को नुकसान पहुँचेगा। अपने विरोधियों, गुजरात विरोधियों ने जो हंगामा मचाया था, रोज सवेरे पत्र लिखना, इसके कारण वर्ल्ड बैंक ने इस प्रकार का कदम उठाया था। उस समय मैंने निर्णय किया कि वर्ल्ड बैंक की ऐसी की तैसी..! गुजरात अपने बलबूते पर यह करके दिखायेगा। लेकिन मुझे वर्ल्ड बैंक को जवाब देना था, उन्हें समझाना था कि हम हिन्दुस्तान के लोग पर्यावरण की कितनी चिंता करते हैं, मानवता की कितनी चिंता करते हैं और हमारी शर्तों पर तुम्हें झुकाएंगे। निवेदन नहीं किया था, निश्चय किया था..! और जब गुजरात में भूकंप आया, भूकंप के बाद फिर पुनर्निर्माण का जो काम हुआ, इस पुनर्निर्माण के काम के लिए, भूकंप के बाद यहाँ जो नए मकान बनाए गए उसके लिए पर्यावरण का, ऍन्वाइरमॅन्ट का वर्ल्ड बैंक का सबसे बड़ा ग्रीन अवॉर्ड’ गुजरात ले आया, मित्रों..! ‘ग्रीन मूवमॅन्ट’ किसे कहते हैं, ऍन्वाइरमॅन्ट किसे कहते हैं यह वर्ल्ड बैंक को हमने समझा दिया।
हाँ जब इस नदी के ऊपर हजारों की संख्या में झोपड़पट्टी बन गई थीं, कब्जा हो गया था, कई प्रकार की अवैध गतिविधियों का अड्डा बन चूका था। अब रीवर-फ्रन्ट बनाना हो तो उनका पुनर्वास भी कराना पड़े। चुपचाप सारे सर्वे कर लिए गए, सारी जानकारी एकत्र कर ली गई। हमारे कांग्रेस के मित्र हवन में हड्डियां डालने का एक भी मार्ग नहीं छोड़ते हैं। केवल मीडिया का प्रयोग करते हैं ऐसा नहीं, कोर्ट कचहरी में जाकर ऐसे अच्छे से अच्छे कामों को रूकवाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी है मित्रों, कोई कसर नहीं रखी..! ये रिवर-फ्रन्ट नहीं बन सके इसके लिए दर्जनों बार स्टे लाने के लिए कोर्ट में गए हैं।इतना ही नहीं, ये मकान देने पर भी बखेड़ा खड़ा किया कि ये लडक़ा अब बड़ा हो गया है, इसे अलग से मकान दो, इसको ये दो, उसे वो दो… हजारों मकान बनाए गए, तो उसके लिए भी हंगामा मचा दिया। कोर्ट में उस हद तक याचिका दायर की कि ये मकान ऐसे हैं कि जिसमें कोई रहने जा ही नहीं सकता। झोपड़पट्टी में जिंदगी गुजारने वाले लोगों का फ्लॅट देने का निर्णय किया, फ्लॅट बनाए, फिर भी कोर्ट कचहरी की..! भाइयो और बहनों, यही कांग्रेस की सरकार दिल्ली में बैठी है। यहाँ कांग्रेस के लोग कोर्ट कचहरी करके, स्टे लाकर पूरे प्रोजेक्ट को रोकने के लिए प्रयास करते हैं और वही दिल्ली की कांग्रेस सरकार की हुडको‘ नाम की एजेंसी उत्तम कार्य के लिए अवॉर्ड दे..! हाउसिंग की उत्तम कारवाई की गई, पुनर्वसन का उत्तम काम किया, गरीब झोपड़पट्टी के लोगों को अच्छे से अच्छे घर दिए, जिसके लिए ‘हुडको’ ने हमें अवॉर्ड भी दिया..!
भाइयो-बहनों, इस कांग्रेस के चरित्र को पहचानने की जरूरत है। यह देश गरीब क्यों रहा है इसके मूल में कांग्रेस की मानसिकता है, कांग्रेस की गरीब मनोवृत्ति है। आज सुबह मैं प्रधानमंत्री का भाषण सुन रहा था। रोज़ कोई बोलता हो तो कुछ खास सुनने की इच्छा नहीं होती, लेकिन बारह महीने में एक बार सुनने को मिले तो मन करता है कि भाई, हम सुनें तो सही, प्रधानमंत्री बोल रहे हैं..? मेरे लिए प्रधानमंत्री मौन खोल रहे हों वह बड़ी घटना थी। मैं जूनागढ़ में था, सवेरे खास तौर पर टीवी चालू करके मैंने उन्हें सुना। पढ़ रहे थे वो..! और वह भी हिन्दी में नहीं लिखा हुआ था, गुरूमुखी भाषा में लिखा हुआ था और हिन्दी में पढ़ रहे थे..! क्योंकि मैं बराबर देख रहा था, उन्होंने एक पन्ना पलटा इसलिए मुझे पता चला कि ये पीछे की ओर से पढ़ रहे हैं, इसका अर्थ यह है कि भाषा हिन्दी नहीं है। हिन्दी हो तो हम बाएं से दाएं जाते हैं, दाएं से बाएं तो… उर्दू हो तो ऐसे जाते हैं, गुरूमुखी होती है तो ऐेसे जाते हैं… जो भी हो, हमारी समझ में तो सब कुछ आ ही जाता है..! मित्रों, कांग्रेस पार्टी के नेता हैं डॉ. मनमोहन सिंहजी, यू.पी.ए. सरकार ने उन्हें प्रधानमंत्री के पद पर विराजमान किया है… वे अपने भाषण में ऐसा कहते हैं कि अपने देश में रोजगार बढ़े इसके लिए उद्योग लाना जरूरी है, विदेश से निवेश लाने की आवश्यकता है, इस देश में मूलभूत सुविधाएं बढ़ाने की आवश्यकता है… ये सब डॉ. मनमोहन सिंहजी ने आज सुबह बोला है। अभी भी टी.वी. पर आ रहा होगा, बीच-बीच में टुकड़े आते होंगे। यही कांग्रेस पार्टी के नेता मनमोहन सिंहजी दिल्ली से एक भाषण दे रहे हैं और उन्हीं के चेले चपाटे जो यहाँ गुजरात में बैठे हैं, कांग्रेस के मित्रों, वे विज्ञापन दे रहे हैं। वह विज्ञापन देखने जैसा है, पूरी तरह से मनमोहन सिंहजी से विपरीत, पूरा कांग्रेस का विज्ञापन मनमोहन सिंहजी के विरुद्ध है..! मनमोहन सिंहजी ये कह रहे हैं कि कारखाने आने चाहिए, विकास होना चाहिए, ऊर्जा का उत्पादन होना चाहिए, ये सब कहते हैं, जबकि गुजरात कांग्रेस का टीवी पर विज्ञापन यह कहता है कि हमें रोड नहीं चाहिए, हमें कारखाने नहीं चाहिए, हमें तो आधी रोटी मिल जाए तो भी चलेगा… देखा था न यह विज्ञापन..? मित्रों, आप ही मुझे बताओ, ये कांग्रेस आपको अठ्ठारहवीं शताब्दी में ले जाना चाहती है, आपको अठ्ठारहवीं सदी में जाना है..? ऐसी दरिद्र मानसिकतावाली विज्ञप्ति लेकर कांग्रेस आती है कि हमें रोड नहीं चाहिए, बोलिए… हमें कारखाने नहीं चाहिए, हमें बिजली नहीं चाहिए, हमारे बच्चों को पढऩे के लिए कॉलेज नहीं चाहिए, यूनिवर्सिटी नहीं चाहिए… बस, आधी रोटी दे दो तो काफी है..! इन साठ सालों में यही तो दिया है इन लोगों ने..! मैं कांग्रेस के विज्ञापन के जो इंचार्ज होंगे उन्हें बधाई देता हूँ कि आपकी असलियत तो सामने आई..! आप इससे आगे सोच भी नहीं सकते। इस देश के गरीब लोगों को महंगाई से बचाकर रोजी रोटी देने की जिम्मेदारी दिल्ली सरकार आपकी है। आप यह मंहगाई घटाते नहीं हो। आपने सौ दिनों में महंगाई हटाने की बात कही थी, आज भीगुजरात का गरीब इंसानहिन्दुस्तान का गरीब इंसान इस दिल्ली की सल्तनत को पूछ रहा है कि आपने महंगाई घटाने का वादा किया थाहुआ क्या, इसका जवाब दो..! भाइयो और बहनों, नहीं दे सकेंगे।
भाइयो-बहनों, आज इस अहमदाबाद शहर के आंगन में रीवर-फ्रन्ट की रचना हुई है। इसका पहला चरण, इस वॉक-वे को आज लोकार्पित किया गया है। मैं चाहता हूँ कि समाज के सभी लोग अपने तदंरूस्ती के लिए इसका उपयोग करें। पर साथ-साथ, कांकरीया में जैसे अहमदाबाद के नागरिकों ने, गुजरात के नागरिकों ने मेरे अनुरोध का मान रखा है। उनको मैंने कहा था कि कांकरीया की स्वच्छता को कोई आंच नहीं आनी चाहिए, कांकरीया की एक भी चीज़ टूटनी नहीं चाहिए। भाइयो-बहनों, नए कांकरिया को बनाए हुए आज करीब पांच साल हो गए हैं, इस अहमदाबाद के नागरिकों ने एक भी वस्तु को टूटने नहीं दी, कचरे का कहीं नामोनिशान नहीं है..! भाइयों, इस रिवर-फ्रन्ट को भी ऐसा ही, हमें अपने घर की तरह ही स्वच्छ रखना है, साफ़-सुथरा रखना है। और एक बार यदि नागरिक तय कर लें कि हमें इसे अच्छा रखना है तो फिर इस कॉर्पोरेशन की ताकत नहीं है कि इसको गंदा कर सके..! यह कॉर्पोरेशन इसे गंदा नहीं कर सकती ये मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ। अगर इस शहर के नागरिक, इस राज्य के नागरिक तय कर लें कि इसको हमें स्वच्छ रखना है, किसी चीज को हमें टूटने फूटने नहीं देना है..! हमारे शहर की अमानत है, मित्रों। भले ही इस रिवर-फ्रन्ट का लोकापर्ण अहमदाबाद की धरती पर हो रहा है, परन्तु हकीकत में इस रिवर-फ्रन्ट का लोकापर्ण हिन्दुस्तान को हो रहा है। क्योंकि पूरे हिन्दुस्तान में यह पहला ऐसा प्रोजेक्ट है जिसकी हमने शुरूआत की है। पूरे देश में कहीं नहीं है, मित्रों..! अभी आने वाले दिनों में हम ऐसी बस लाने वाले हैं कि जिसे ऊपर चलने वाली बस में ना जाना हो, तो वह एक छोर से दूसरे छोर तक पानी में चलने वाली बस में जाए..! ट्रांसपोर्टेशन के जितने भी साधन उपलब्ध हो सकते हैंहमें उपलब्ध करवाने हैं। मैंने यंग दोस्तों को आकर्षित करने के लिए एक बार असितभाई से कहा था कि हम‘फेसबुक फोटोग्राफी कम्पीटीशन’ करते हैं। और मैंने देखा कि ‘फेसबुक फोटोग्राफी‘ में कितने सारे युवा भाग ले रहे हैं और उनकी ‘फेसबुक फोटोग्राफी’ कितनी रिट्विट हो रही है, कितनी व्यापक रूप में उसकी पब्लीसिटी हो रही है..! आज दुनिया में किसी एक प्रोजेक्ट को सोशल मीडिया में सबसे ज्यादा देखा जाता हो तो वह ये रिवर-फ्रन्ट है। मैंने आज उनसे कहा कि हर सप्ताह का फेसबुक स्पर्धा में जो फोटो सर्वश्रेष्ठ आए उसे यहाँ प्रदर्शनी के लिए रखो, फिर हर महीने उत्तम आने वाले फोटो को प्रदर्शन में रखो और पूरे साल में जो बेस्ट फोटो साबित होगा उसे महंगी से मंहगी कार ईनाम में दी जाएगी, साढ़े छह लाख रूपये की काम उसे मिलने वाली है..! मोबाइल से फोटो लो, फोटो का प्रिंट भेजने की जरूरत नहीं है, सस्ते से सस्ता… बस, फोटो खींचों और मेल करो..! आपके मित्र देखें, लाइक करें, आगे भेजें… चारों तरफ चलता है फेसबुक का नेटवर्क। रिवर-फ्रन्ट पूरी दुनिया में नंबर एक पर आ सके ऐसी ताकत रखता है। अहमदाबाद के युवाओं, लग जाओ..!
भाइयों और बहनों, इस प्रकार की व्यवस्था शहर को ताजगी देती है, शहर में एक नई प्राणशक्ति पैदा करती है। ये अरबों-खरबों रूपये का जो खर्चा किया है वह इस शहर की जनता के लिए है, इन नौजवानों के लिए है, भावी पीढ़ी के लिए है। मित्रों, गुजरात को मानसिक दरिद्रता से बाहर लाने का एक भागीरथ प्रयास हमने किया है, इसके एक भाग के रूप में यह काम किया है। और आज इस रिवर-फ्रन्ट के काम के लिए इसके आर्किटेक्ट, इसके डिज़ाइनर… क्योंकि देश में पहली बार ऐसा कुछ हो रहा था, इसलिए सभी चीज़ें नए सिरे से करनी थीं। और नए सिरे से किए गए सभी प्रयोगों को हमने सफलता पूर्वक पूरा किया है तब आज पन्द्रह अगस्त के आजादी के अवसर की भी शुभकामनाएं और नए उपहार के लिए भी आपको शुभकामनाएं। मेरे साथ बोलिए…
भारत माता की जय…!!
उस पुल तक लोग हैं, आवाज वहां तक पहुँचनी चाहिए…

भारत माता की जय…!!

BEST SPEECH ON CORRUPTION IN HINDI


                                             'भ्रष्टाचार'
जकल हिंदुस्तान में एक शब्द अत्यंत लोकप्रिय हो चला है, महानतम्‌ नेता-अभिनेता से भी कहीं अधिक। चर्चित भी इतना अधिक है कि गली-गली, गांव-गांव, क्या बच्चा, क्या बूढ़ा, क्या जवान, क्या औरत, क्या आदमी, गरीब-अमीर सब इसी की बातें करते देखे-सुने जा सकते हैं। सास-बहू के सीरियल और सनसनी पर अपनी टीआरपी बढ़ाने वाला टेलीविजन भी आजकल इस पर कुछ अधिक ही मेहरबान है। तथाकथित बुद्धिजीवियों के तो हाथ मानों लाटरी लग गई हो। जिसे देखो इस शब्द पर अपना ज्ञान उड़ेलने के लिए तैयार बैठा है। मीडिया की चर्चा में भाग लेने के लिए आने वाले चापलूस स्वयंभू विशेषज्ञों के लिए मानों ओवरटाइम का वक्त शुरू हो गया। यहां पक्ष-विपक्ष की तरफदारी के लिए मशक्कत करने की भी जरूरत नहीं, बस इस शब्द पर अंटशंट बात करते रहो। इस शब्द पर तो लेखकों ने हर समाचारपत्र-पत्रिका के कागज भर मारे। इतनी खोज-खबर और शोधपूर्ण विश्लेषण शायद किसी विषय का भी नहीं हुआ होगा, जितना इस अकेले शब्द का हुआ है। हिंदी ही नहीं अंग्रेजी भाषा के भी दूसरे शब्द इसकी इतनी अधिक लोकप्रियता को देखकर जलते-भुनते होंगे। ठीक उसी तरह जिस तरह से एक रूपवान महिला न जाने क्यूं अमूमन हर दूसरी सुंदरी से ईर्ष्या करती है।
मगर यहां मजेदारी इस बात की है कि इस शब्द की सामाजिक स्वीकृति फिल्मी नायिका जैसी नहीं है, जिसके चरित्र के साथ उसकी खूबसूरती की चर्चा दर्शक खुलेआम करता है। यह तो उस आइटम-गर्ल की तरह बदनाम है जिसके साथ हर दूसरा व्यक्ति समय तो गुजारना चाहता है, देख-देखकर मजा भी लेता है, मौका मिले तो वो सब कुछ कर सकता है जिसकी कल्पना की जा सकती है, मगर दिन-दहाड़े उजाले में रिश्ते स्वीकार करने से इंकार करता है। सिनेमाघर के अंदर अंधेरे में उसकी मनमोहक अदाओं को पसंद करते हुए खूब सीटियां बजाता है मगर बाहर आकर उससे पल्ला झाड़ लेता है। क्या किसी एक शब्द में इतने अधिक गुण-अवगुण एकसाथ संभव हैं? यकीन नहीं होता। लेकिन यह सच है। और वो शब्द है 'भ्रष्टाचार'।
उपरोक्त शब्द की कहानी यहीं समाप्त नहीं हो जाती। इसके साथ एक और गजब का विरोधाभास है। जो देखो वो भ्रष्टावार के विरोध में बात तो करता है मगर दूसरी तरफ हर दूसरा आदमी भ्रष्ट है। स्थिति इतनी विकराल ही नहीं, विकृत और बदतर है कि कुछ न कहना ही बेहतर होगा। यह हमारी सभ्यता में कहां से कब-कैसे शुरू हुई, इसका सिरा पकड़ना अब असंभव है। समाज में चारों दिशाओं में इस कदर दूर-दूर तक फैल चुकी है कि कोई अंत नहीं दिखाई देता। स्थिति इतनी भयावह है कि भ्रष्टाचारियों को चिन्हित करने का काम शुरू हो जाने पर शायद ही कोई बचे। मगर मजेदार बात यह है कि जो पकड़ा गया वही चोर है, के चलन के कारण हर एक व्यक्ति/संस्थाएं दूसरे पर उंगली उठाकर स्वयं को पाक-साफ घोषित करने में जरा भी हिचक महसूस नहीं करती। यूं तो भ्रष्टाचार आमतौर पर आर्थिक संदर्भ में ही उपयोग किया जाता है मगर हमारे यहां तो इसके इतने रूप-रंग और चेहरे दिखाई देते हैं कि देख-सुनकर दिमाग खराब हो जाता है। धार्मिक, सामाजिक, वैचारिक ही नहीं हम भावनात्मक रूप से भी इतने भ्रष्ट हो चुके हैं कि सोच-सोचकर सिर चकरा जाता है।
इसने हमारे व्यवहार, विश्वास, जीवनशैली व संस्कृति को ही प्रभावित नहीं किया बल्कि अब भ्रष्टाचार हमारा स्वभाव बन चुका है। यह हमारे खून में शामिल है। यह दीगर बात है कि इसका उपयोग हम हर वक्त नहीं करते। या यूं कहें कि हर समय मौका नहीं मिलता। और जिसे मौका नहीं मिलता अमूमन वही स्वयं को भ्रष्टाचार से मुक्त प्रमाणित करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। मगर समय आने पर इसका उपयोग करने से आमतौर पर कोई भी नहीं चूकता। हो सकता है चुपचाप धीरे से ही सही, लेकिन कई बार तो मौका मिलते ही हम सारी सीमायें तोड़ देते हैं। ऐसा नहीं कि यह बीमारी हमारी आज की है। शताब्दियों तक गुलाम रहने के पीछे इस शब्द के चलन का बहुत बड़ा योगदान रहा है। मगर इस युग में खुले बाजार की पूंजीवादी नीति ने हमारी चाहतों व महत्वाकांक्षाओं को हवा क्या दी, यह अपनी नयी ऊंचाइयों को छू रहा है।
राष्ट्र व समाज से लेकर व्यक्तिगत जीवन का शायद ही कोई हिस्सा बचा हो जो भ्रष्टाचार से अछूता हो। मरणासन्न रोगी के लिए भी अस्पताल का भ्रष्टाचार कम नहीं हो पाता। तमाम व्यवस्था को बनाये रखने व चलाने वाली संस्थाओं व प्रशासन पर कोई टिप्पणी करना व्यर्थ समय गंवाना है। मगर दुर्भाग्यवश राजनीतिज्ञ ही इसके कारण सबसे अधिक बदनाम हुए हैं। राजनेताओं को इस क्षेत्र के शिखर पर बैठाकर आज हर दूसरा आदमी अपनी कमीज सफेद घोषित कर देना चाहता है। लेकिन इन सबके कपड़ों के दाग भी उजाले में उभरकर सरेआम मुंह चिढ़ाते हैं। यह दीगर बात है कि आईने में हमें कभी कुछ गलत दिखाई नहीं पड़ता। और हम अपना चेहरा देख-देखकर स्वयं ही इतराते रहते हैं। विभिन्न राजकीय संस्थाएं ही क्यूं, हमारी सामाजिक संस्थाएं भी कितनी भ्रष्ट हो चुकी हैं, देखकर हैरानी होती है। ज्ञान के मंदिर से लेकर अध्यात्म का मंदिर, प्रेम का मंदिर सब भ्रष्टाचार में डूब चुके हैं। यह अलग बात है कि हमारी ऐसी स्थिति के लिए कुछ हमारी आदतें जिम्मेदार हैं तो कुछ हालात ने हमें ऐसा बना दिया।
ट्रेन में एक ही सीट खाली है और दस व्यक्ति प्रतीक्षा-सूची में हैं, और सभी को यात्रा करना जरूरी हो तो आदमी भ्रष्ट तरीका अपनाने के लिए मजबूर हो जाता है। फिर इतनी सहनशीलता, शालीनता और मानवीयता कहां बची कि सही रास्ता ढूंढ़ा जाये। उलटे जब एक साधन-संपन्न व्यक्ति, आसानी से सुविधा प्राप्त करने के लिए लेनदेन का रेट बढ़ा देता है तो भ्रष्टाचार प्रतिस्पर्धा करने लगता है। तभी तो चपरासी से लेकर वरिष्ठतम्‌ नौकरशाह तक, एक राशनकार्ड बनाने से लेकर एक कारखाने की स्थापना तक में भ्रष्टाचार अपने-अपने ढंग से जुटा हुआ है। यहां किसको दोष दिया जाये? सवाल पूछा जा सकता है कि संस्थाएं कार्पोरेट को भ्रष्टाचार के लिए मजबूर करती हैं या पूंजीपति अपने हित-साधन के लिए भ्रष्ट करता है? यह मुर्गी-अंडे की कहानी के समान है। पहले दुनिया में कौन आया था? इस पर बहस करना व्यर्थ है। हकीकत तो यही है कि हर एक इस खेल में शामिल है और अपने-अपने ढंग व सहूलियत से खेल रहा है।
इतना सब होने के बावजूद इस शब्द को सामाजिक स्वीकृति नहीं। यही कारण है जो इसका नाम साथ जुड़ने मात्र से लोग डरने लगते हैं। इस शब्द की एक विशेषता और है, यह मजा तो देती है मगर साथ में तंग भी बहुत करती है। इस बुरी आदत, जो कि लत बन चुकी है, को छोड़ पाना आसान नहीं। बहरहाल, भ्रष्टाचार-मुक्त समाज देखने-बनाने के लिए सब आतुर नजर आते हैं। यही कारण है जो भ्रष्टाचार शब्द की महान कथा यहीं खत्म नहीं हो जाती। अब तो इसके नाम पर आंदोलन खड़े कर दिये गये। अनजान चेहरे रातोंरात सितारा बन गये। इस मुद्दे पर जनसमर्थन मिलना स्वाभाविक था, मिला भी। फलस्वरूप आंदोलनकारियों में जोश इतना आ गया कि क्रांति की बात की जाने लगी। उपरोक्त संदर्भ में चर्चा करने पर एक दोस्त ने बड़ा अच्छा किस्सा सुनाया था। उसके क्षेत्र में भी एक व्यक्ति ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन छेड़ रखा था।
बैंड-बाजे के साथ बाजार में घूमता और जब देखो तब किसी के भी विरुद्ध धरने पर बैठ जाता। कुछ को भावनात्मक रूप से तो कुछ को ले-देकर, इस तरह से दो-चार-पांच-दस लोगों को इकट्ठा करके जिंदाबाद-मुर्दाबाद के नारे लगाता। इस शब्द की माया ही थी कि उसकी नेतागिरी चल पड़ी। स्थानीय मीडिया में वो आने लगा। मेरे द्वारा यह पूछने पर कि इसमें आपत्ति क्या है? दोस्त ने यह कहकर जोर से ठहाका लगाया था कि वो हमारे क्षेत्र का सबसे शातिर और भ्रष्टतम्‌ आदमी है। अब दुकानों से, स्थानीय कार्यालयों से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से उसकी अच्छी आमदनी होने लगी है। सुनकर मेरा दिमाग चकराया था। और विभिन्न राष्ट्रीय आंदोलनों के खिलाफ उठ रही शंकाओं को इस उदाहरण से बल मिलते ही मेरे होश उड़ने लगे थे।
भ्रष्टाचार शब्द की महिमा यहीं समाप्त नहीं हो जाती। उसको मिटाने वाले शब्द का निर्माण किया गया तो वो भी रातोंरात हर एक की जुबान पर पहुंच गया। लोकपाल। मगर मन में संशय तो प्रारंभ से ही था कि क्या एक लोकपाल से सबकुछ ठीक हो जायेगा? क्या यह संभव है? उपरोक्त विस्तृत वर्णन देखकर लगता तो नहीं? फिर हमारा भ्रष्टाचार इतना कमजोर भी नहीं जो किसी एक ब्रह्मास्त्र से खत्म हो जाये। उलटा वो इतना चतुर-चालाक है कि इस लोकपाल को ही अपने कब्जे में ले सकता है। और फिर जिस समाज में इस शब्द का इतना अधिक मायावी प्रभाव हो उससे पूरी तरह बचा हुआ कोई साफ-सुथरा व्यक्ति-समूह का मिल पाना, हास्यास्पद-सा लगता है! मगर फिर भी इस विषय पर गहराई से बात करने को कोई तैयार नहीं। और जो इसका विश्लेषण करे उसे भ्रष्टाचारी घोषित कर दिया जाता है।
अब क्या किया जाये भ्रष्टाचार शब्द के मायाजाल के साथ-साथ इसके विरुद्ध आक्रोश भी उतना ही है। खैर, धन्य हो उन महान भ्रष्टाचारियों का जिन्होंने इस संपूर्ण घटनाक्रम को भ्रष्ट किया और उन्हें पकड़ने वाले को पैदा होने से पूर्व ही भ्रष्ट करने का एक सफल सुनियोजित प्रयास किया। यहां तक भी सब ठीक था। इस शब्द पर राजनीति तो पहले भी होती थी मगर अबकी बार इसकी सवारी कर लोकप्रियता की ऊंचाई हासिल करने वाले कुछ एक उत्साही महत्वाकांक्षी युवक राजनीतिज्ञ बनने के सपने देखने लगे हैं। वे इस शब्द को हराने के लिए युद्ध लड़ने का नारा दे रहे हैं। भ्रष्टाचार के डरावने सपनों से निकालने के वायदे किये जा रहे हैं। चुनावी हथकंडों से खेला जाने लगा है। राजनीतिज्ञों द्वारा भ्रष्टाचार के मुद्दे को शस्त्र बनाकर एक-दूसरे के विरुद्ध उपयोग तो होता आया है मगर इसकी सवारी कर राजनीति करने का यह अद्भुत नजारा है। यह जानते हुए भी कि राजनीति के घोड़े से सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक क्षेत्र के भ्रष्ट शेरों को हराना नामुमकिन है फिर भी कुछ एक अंधभक्त समर्थक इनके साथ लड़ने को आतुर नजर आते है। यह देखकर हैरानी होती है।
यह भ्रष्टाचार शब्द की ही अनंतलीला है कि इसने स्वयं को एक खेल में परिवर्तित कर दिया। यहां हरेक खिलाड़ी के अपने-अपने नियम हैं। छोटे और बड़े भ्रष्टाचारी के बीच जंग तो बेमानी होगी मगर भ्रष्टाचारी अम्पायर के तर्क और भ्रष्ट दर्शकों की ताली देखकर किसी की भी बुद्धि भ्रष्ट हो सकती है।
                                                                                              मनोज सिंह
                                                                                                                        चंडीगढ़ 

SPEECH ON AARAKSHAN IN HINDI


                    आरक्षण के सहारे राजनीति

अल्पसंख्यक आरक्षण के प्रस्ताव से जाति-मजहब आधारित राजनीति को और दिशाहीन होते देख रहे हैं संजय गुप्त

उत्तर प्रदेश, पंजाब समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के ठीक पहले केंद्र सरकार ने अल्पसंख्यक आरक्षण का पत्ता जिस तरह चला उससे यह साफ हो गया कि वह आरक्षण के जरिये एक बड़े वोट बैंक को अपने पाले में लाना चाहती है। यह पहली बार नहीं हुआ जब चुनावी लाभ के लिए आरक्षण को हथियार बनाया गया है। सच्चाई यह है कि अब आरक्षण वोट पाने का जरिया बन गया है। केंद्र सरकार ने पंथ के आधार पर अन्य पिछड़ा वर्ग के कोटे में अल्पसंख्यकों को साढ़े चार प्रतिशत आरक्षण देने की जैसे ही घोषणा की वैसे ही हाल में केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल हुए अजित सिंह ने जाट आरक्षण की मांग आगे बढ़ा दी। इसके पहले लोकपाल विधेयक में आरक्षण समाहित कर दिया गया। जिस संस्था का निर्माण भ्रष्टाचार मिटाने के लिए किया जा रहा है वहां आरक्षण को महत्व देने का कोई मतलब नहीं, लेकिन केंद्र सरकार ने ऐसा ही करके देश में असमंजस की स्थिति पैदा कर दी। आखिर लोकपाल अथवा लोकायुक्त सदस्यों का चयन उनकी जाति-पंथ के आधार पर क्यों किया जाना चाहिए? ऐसी संस्थाओं के सदस्यों के चयन की एक मात्र योग्यता तो उनकी साख होनी चाहिए। इससे ही जनता में उनके प्रति विश्वास बढ़ सकता है, लेकिन केंद्र सरकार को यहां भी राजनीति करने की सूझी।

भारत इस दृष्टि से एक अनूठा देश है कि यहां सैकड़ों जातियों और उपजातियों के साथ विभिन्न पंथों के लोग हैं। भारतीय समाज की यह भिन्नता पश्चिमी देशों के लिए एक पहेली है। उन्हें इस पर आश्चर्य होता है कि इतनी भिन्नता के बावजूद भारत एकजुट होकर आगे कैसे बढ़ रहा है? इस एकजुटता के पीछे आपसी समन्वय और सद्भाव के साथ भारतीय के रूप में पहचान बनाने की ललक है। यह निराशाजनक है कि राजनीतिक दल सत्ता पाने अथवा उस पर काबिज रहने की होड़ में विभिन्न जातियों और पंथों में न केवल भेद कर रहे हैं, बल्कि उन्हें एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर रहे हैं। आजादी के बाद देश के एक बड़े वर्ग को मुख्यधारा में लाने के लिए आरक्षण जैसी व्यवस्था की जरूरत महसूस की गई और इसीलिए अनुसूचित जातियों-जनजातियों के लिए दस वर्ष तक आरक्षण की व्यवस्था की गई। इसके बाद राजनीतिक कारणों से यह अवधि आगे बढ़ाई जाती रही और फिर अन्य पिछड़ा वर्गो के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था कर दी गई। अब स्थिति यह है कि करीब-करीब हर कोई आरक्षण मांग रहा है और इस तथ्य के बावजूद कि आरक्षण सीमा 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती। आज हर राजनीतिक दल आरक्षण को राजनीतिक हथियार बनाए हुए हैं। कोई भी इस पर विचार करने के लिए तैयार नहीं कि आरक्षण उन उद्देश्यों को पूरा कर पा रहा है या नहीं जिनके लिए उसे लाया गया था? शिक्षा और सरकारी नौकरियों के अवसर आरक्षित एवं गैर आरक्षित तबकों में बांटने से सामाजिक समरसता पर विपरीत असर पड़ने के बावजूद राजनीतिक दल आरक्षण व्यवस्था की खामियों पर विचार करने के लिए तैयार नहीं।

जातिगत आरक्षण के बाद पंथ के आधार पर भी आरक्षण की व्यवस्था कर केंद्र सरकार ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है। यह व्यवस्था इसके बावजूद की गई कि संविधान पंथ के आधार पर आरक्षण की इजाजत नहीं देता। संविधान की ओर से पंथ के आधार पर आरक्षण का निषेध किए जाने के बावजूद तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र समेत नौ राज्यों ने अल्पसंख्यक समुदायों के पिछड़े तबकों को आरक्षण प्रदान कर रखा है। केंद्र सरकार ने एक कदम आगे जाते हुए सभी अल्पसंख्यक समुदायों को अन्य पिछड़ा वर्ग का दर्जा दे दिया और इसीलिए यह माना जा रहा कि उसका निर्णय न्यायपालिका द्वारा खारिज किया जा सकता है। केंद्र सरकार के इस निर्णय पर जहां भाजपा ने आपत्ति जताते हुए यह कहा है कि इससे देश में गृहयुद्ध की स्थिति बन सकती है वहीं अन्य विपक्षी दल अल्पसंख्यक आरक्षण को अपर्याप्त बता रहे हैं या फिर केंद्र की राजनीतिक चाल के रूप में देख रहे हैं। चूंकि भाजपा जानती है कि उसे मुस्लिम समाज के वोट नहीं मिलने वाले इसलिए उसकी कोशिश सिर्फ हिंदू भावनाओं को भुनाने की है। यदि भाजपा को विरोध करना ही है तो फिर उसे आरक्षण व्यवस्था की समस्त खामियों का विरोध करना चाहिए। सिर्फ पंथ के आधार पर दिए जाने वाले आरक्षण का विरोध करने पर तो वह वोट की राजनीति करती हुई ही दिखेगी।

यह हर कोई समझ रहा है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के ठीक पहले केंद्र सरकार ने अल्पसंख्यक आरक्षण का निर्णय सिर्फ इसलिए लिया है ताकि उसे इन राज्यों और विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में चुनावी लाभ मिल सके। कांग्रेस को यह अच्छी तरह पता था कि नए सिरे से वोट बैंक बनाए बिना उसे सफलता मिलने वाली नहीं है, लेकिन इसमें संदेह है कि वह अल्पसंख्यक आरक्षण का पूरा-पूरा लाभ उठा पाएगी, क्योंकि मुस्लिम समुदाय यह जान रहा है कि केंद्र सरकार का निर्णय प्रतीकात्मक महत्व वाला ही है। अन्य पिछड़ा वर्ग के 27 फीसदी आरक्षण के तहत उसे पहले से ही लाभ मिल रहा था। उसे यह भी पता है कि लोकपाल संस्था में मुश्किल से एक सदस्य के रूप में उसका प्रतिनिधित्व होने से उसकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। हालांकि केंद्र सरकार का तर्क है कि उसने 2009 के अपने घोषणापत्र के वायदे को पूरा किया है, लेकिन उसके पास इस सवाल का जवाब नहीं कि वह दो वर्ष तक क्या करती रही? अब यह आवश्यक है कि आरक्षण के मसले पर उच्चतम न्यायालय नए सिरे से विचार करे, क्योंकि ऐसी राजनीति ठीक नहीं जो समाज को जातियों और पंथों के रूप में अलग-अलग करके देखे।

निश्चित रूप से जाति भारतीय समाज की एक सच्चाई है और फिलहाल जाति और पंथगत पहचान मिटाना एक मुश्किल काम है, लेकिन इसे नामुमकिन भी नहीं कहा जा सकता। बहुत से विकसित देशों ने एक हद तक इसमें सफलता हासिल की है और इसीलिए इन देशों में समान नागरिक संहिता लागू की जा सकी है। जाति और पंथ की दीवारों को ढहाने के लिए राजनीतिक दलों को आरक्षण को चुनावी राजनीति का माध्यम बनाना बंद करना होगा। यह तब होगा जब आरक्षण की ऐसी व्यवस्था बनेगी जिसमें योग्यता के मानकों से समझौता न हो। समय आ गया है कि आरक्षण के मौजूदा तौर-तरीकों पर सभी दल बहस करें और यह देखें कि आरक्षण चुनावी राजनीति का जरिया न बन सके। यह आसान नहीं, क्योंकि राजनीतिक स्वार्थो के कारण आरक्षित वर्गो की क्रीमीलेयर की मनमानी परिभाषा अभी भी की जा रही है। हालांकि केंद्र सरकार के निर्णय के चलते फिलहाल केवल पंथ के आधार पर दिए जाने वाले आरक्षण पर ही बहस केंद्रित है, लेकिन जरूरत आरक्षण की पूरी व्यवस्था पर नए सिरे से विचार-विमर्श की है।